ब्रह्मचर्य : कुछ महत्वपूर्ण बातें
· यदि काम -विकार उठा और हमने उसको समझकर कि 'यह ठीक नहीं है, इससे मेरे बल, बुद्धि और तेज का नाश होगा' , टाला नहीं और उसकी पूर्ति करने में लम्पट हो गए तो हममें और पशुओं में अंतर ही क्या रहा ?
· रत्नों से भरी हुई सारी पृथ्वी, संसार का सारा सुवर्ण, पशु और सुन्दर स्त्रियाँ, वे सब एक पुरुष को मिल जाये तो भी वे सब - के - सब उसके लिए पर्याप्त नहीं होंगे। अतः तृष्णा का त्याग कर देना चाहिए।
· जिस व्यक्ति के जीवन में संयम और सदाचार नहीं है वह न तो स्वयं ठीक से उन्नति कर पाता है और न ही समाज में या देश और विज्ञानं के लिए कोई महान कार्य कर पाता है।
· साधना द्वारा जो साधक अपने वीर्य को उर्ध्वगामी बनाकर, उर्ध्वरेता होकर योगमार्ग में आगे बढ़ते हैं वे कई प्रकार की सिद्धियों के मालिक बन जाते हैं। ऐसा उर्ध्वरेता पुरुष ही परमात्मा को पा सकता है, आत्म - साक्षात्कार कर सकता है।
· वीर्य इस शरीररूपी नगर का एक तरह से राजा ही है। यह वीर्यरुपी राजा यदि पुष्ट है, बलवान है तो रोगरुपी शत्रु शरीररूपी नगर पर कभी आक्रमण नहीं करते। जिसका वीर्यरुपी राजा निर्बल या कमज़ोर है उस शरीररूपी नगर को रोगरुपी शत्रु आकर रोगी बना देते हैं।
· वीर्यनाश ही मृत्यु है और वीर्य-रक्षण ही जीवन है।
· जहाँ- जहाँ भी आप किसी व्यक्ति के जीवन में कुछ वैशिष्टय, चेहरे पर तेज, वाणी में बल, कार्य में उत्साह पायेंगे वहाँ समझो वीर्य- रक्षण का ही चमत्कार है।
· वीर्य - व्यय अथार्त वीर्य खर्च करना कोई थोड़ी देर के सुख के लिए शरीर में प्रकृति की व्यवस्था नहीं है। तेजस्वी सन्तानोत्पत्ति के लिए इसका वास्तविक उपयोग है।
· बड़े खेद की बात है की जो मनुष्यजन्म अपने और दूसरे के परम श्रेय परमात्मप्राप्ति में लगाना था उसके बजाय मनुष्य अपना अमूल्य जीवन हाड़ - मांस को चाटने - चूसने में बर्बाद कर रहा है।
स्त्रोत : ऋषि प्रसाद
ब्रह्मचर्य
ब्रह्मचारी बच्चों के लिए बचपन से ही आहार - शुद्धि अत्यन्त आवश्यक है। आहार - शुद्धि के सम्बन्ध में चार बातें ध्यान में रखनी चाहिये --
ब्रह्मचर्य
ब्रह्मचारी बच्चों के लिए बचपन से ही आहार - शुद्धि अत्यन्त आवश्यक है। आहार - शुद्धि के सम्बन्ध में चार बातें ध्यान में रखनी चाहिये --
1. आहार स्वभाव से ही उत्तेजक न हो। मांस, शराब, प्याज, लहसुन आदि जन्म से ही उत्तेजक हैं।
2. भोजन पदार्थ में कोई ऐसी वस्तु न मिली हो, जिससे वह वीर्य के निकलने के हेतु बन जाये - जैसे अमचूर, राई, गरम मसाले, लाल मिर्च इत्यादि। धूम्रपान ब्रह्मचर्य का महान शत्रु है।
3. भोजन की वस्तु रजस्वला एवं प्रबल काम- वासनावाली स्त्री के द्वारा स्पर्श की हुई या बनायी हुई न हो। कुत्ते और गीध आदि की दृष्टि भोजन पर नहीं पड़नी चाहिये। भोजन पर भाव का बहुत प्रभाव पड़ता है। रोती हुई स्त्री के हाथ का भोजन करने से रोना पड़ता है।
4. भोजन पदार्थ पर अपना न्यायसंगत स्वत्व होना भी आवश्यक है। दुसरे का हक मन को बाहर खींचता है। गृहस्थ (जिसने शादी करी हो) को बिना परिश्रम और बिना मूल्य का भोजन नहीं करना चाहिये। इससे विकारों की वृद्धि होकर गृहस्थोचित ब्रह्मचर्य भंग हो जाता है। ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी और सन्यासी का भिक्षा पर न्यायोचित स्वत्व है; परन्तु यदि वे आश्रमोचित कर्मानुष्ठान न करें, केवल भिक्षाजीवी बन जायें तो उनका पतन हो जाता है। ब्रह्मचारी के लिये श्रम अपेक्षित है, चाहे वह किसी भी आश्रम में क्यों न रहता हो। श्रम से ही शुक्र (वीर्य ) का पाचन होता है।
ब्रह्मचर्य - रक्षा के लिए छान्दोग्योपनिषद में छः बातों पर विशेष बल दिया गया है --
1. इष्ट अर्थात अग्निहोत्र, शारीरिक, वाचिक और मानसिक तपस्या, वेदों का स्वाध्याय, वेदोक्त आचरण का अनुष्ठान, अतिथि - सेवा और बलिवैश्वदेव।
2. यज्ञ अर्थात देवाराधन, अपने हक़ की वस्तुओं को औरों के प्रति वितरण, पंचभूतों की शुद्धि, समष्टि की सेवा।
3. मौन - मन में वासनाओं का स्फुरण न होना, मनोराज्य न होना। आवश्यकता से अधिक भाषण न करना।
4. अरण्यायन - शांत, एकांत, पवित्र, निर्जन वन में वास करना।
5. सत्रायण - सत्संग में निवास करना।
6. अनाशकायन - भोजन के सम्बन्ध में एक निश्चित शैली रखना।
आजीवन ब्रह्मचारी के लिये सबसे पहली बात यह है कि वह अपनी एक निष्ठा का निर्णय - निश्चय कर ले। उसे चार निष्ठाओं में से अपने लिये कोई एक चुन लेना चाहिये --
1. कर्म - यज्ञ - यागादि, वेदोक्त कर्मकाण्ड, अशिक्षा - निवारण, रोग - निवारण, स्वच्छता का प्रचार, लोगों में नैतिक जीवन की ओर रूचि उत्पन्न करना।
2. उपासना - गायत्री - जप, नाम - ज़प, देवाराधन, संकीर्तन, कथा - श्रवण, भक्ति के विभिन्न अंगों का अनुष्ठान।
3. योग - आसन, प्राणायाम आदि के द्वारा चित्तवृतियों के निरोध का अभ्यास।
4. ज्ञान - श्रवण, मनन, निदिध्यासन के द्वारा आत्मसाक्षातकार के लिये प्रयत्न।
इन चारों में से किसी एक को प्रधान और शेष को गौण - रूप से धारण करना चाहिये। सभी निष्ठाओं में इन्द्रियसंयम, मनोनिरोध एवं सदाचारयुक्त मृदु व्यवहार की अपेक्षा है। किसी एक निष्ठा को स्वीकार किये बिना अकर्मण्यता - बेकारी आने का भय रहता है, जिससे मन में विकारों के आ जाने की सम्भावना रहती है। निकम्मे आदमी का जीवन प्रमाद का घर होता है।
रसनेंद्रिये और जननेन्द्रिय का बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध है। रसना जो रस ग्रहण करती है, वही शुद्ध और पक्व होकर वीर्य के रूप में परिणत होता है। यदि रस अर्थात जीभ पर काबू नहीं है तो वीर्य पर भी नहीं रह सकता। इसलिये निम्नलिखित बातों का ध्यान रखें --
1. भोजन में स्वाद पर दृष्टि ( नजर ) नहीं रखना। केवल जीनेभर के लिए हितकारी वस्तुओं से उदरपूर्ति मात्र कर लेना। शौक से खट्टी, मीठी, चटपटी वस्तु नहीं खानी चाहिये। न स्वाद के लिये ही खानी चाहिये।
2. खुद बनाया भोजन हो तब तो नमक, मीठे, खट्टे, मसाले का प्रयोग ही नहीं करना चाहिये। शुद्ध सात्त्विक एवं परिमित अल्प भोजन समय पर ही करना चाहिये। अनेक बार भोजन नहीं करना चाहिये।
3. आवश्यक भोजन एक बार में ही परोस वाले, बार-बार न लें। ठंडे-गरम का विचार न करें। दूसरा क्या खा रहा है यह देखें बिना मौन होकर भोजन करें। संभव हो तो वस्तुओं की और ग्रासों की गिनती निश्चित कर लें।
4. भोजन के प्रारंभ में भगवान को भोग लगाना चाहिये। इससे स्वतः प्राप्त स्वादिष्ट भोजन के प्रति स्वाद वासना का दोष मिट जाता है।
किसी व्यक्ति का सौन्दर्य अथवा उसके द्वारा निर्मित वस्तु का सौन्दर्य देखने की वासना अन्ततोगत्वा भोग में परिणत हो जाती है। इस नेत्रवासना पर विजय प्राप्त करने के लिये बहुत जागरूक रहना चाहिये --
1. मन-ही-मन चर्म का पर्दा हटाकर तब व्यक्तियों को देखना चाहिये।
2. जगजननी जगदम्बा को ही सर्वत्र देखना चाहिये।
3. चलते समय चार हाथ से अधिक दूर तक न देखना। इधर - उधर न देखना। तिरछी और चुभती हुई नजर से किसी को न निहारना। दृष्टि ( नजर ) पक्की करने का अभ्यास करना।
एक बात सदा ध्यान में रखनी चाहिये। रूप, स्पर्श, आदि की वासनाएँ मन की कमजोरी हैं। दृण ( कठिन ) प्रतिज्ञा, निश्चय और सावधानी से ही इन पर विजय प्राप्त की जा सकती है।
स्त्रोत: आरोग्य-अंक, गीताप्रेस, गोरखपुर
गर्भवती स्त्री द्वारा रखने योग्य सावधानी :
उकडू बैठना, ऊँचे-नीचे स्थान एवं कठिन आसन में बैठना, वायु, मल -मूत्र का वेग रोकना, शरीर जिसके लिए अभ्यस्त न हो ऐसा कठिन व्यायाम करना, तीखे , गरम, खट्टे, दही एवं मावे की मिठाइयों जैसे पदार्थों का अति सेवन करना, गहरी खाई अथवा जहाँ ऊँचे जलप्रपात ( waterfall ) हों ऐसे स्थलों पर जाना, शरीर अत्यंत हिले-डुले ऐसे वाहनों में मुसाफिरी करना, हमेशा चित्त सोना - ये सब कार्य और व्यवहार गर्भ को नष्ट करनेवाले हैं अतः गर्भिणी (माँ ) को इनसे बचना चाहिए ।
जो गर्भिणी स्त्री खुले प्रदेश में, एकांत में अथवा हाथ- पैरों को खूब फैलाकर सोने के स्वभाववाली हो अथवा रात्रि के समय में बाहर घूमने के स्वभाववाली हो तो वह स्त्री उन्मत्त- पागल बच्चे को जन्म देती है । लड़ाई- झगड़े, हाथापाई एवं कलह करने के स्वभाववाली स्त्री अपस्मार या मिर्गी के रोगवाली संतान को जन्म देती है । यदि गर्भावस्था में मैथुन (सेक्स) किया जाये तो ख़राब शरीरवाली, लज्जारहित, स्त्रीलंपट (लड़कियों के पीछे भागने वाली ) संतान उत्पन्न होती है । गर्भावस्था (प्रेगनेंसी) में शोक, क्रोध एवं दुष्ट कर्मों का त्याग करना चाहिए ।
गर्भधारण (प्रेग्नेंट ) होने के बाद ब्रह्मचर्य का पूर्ण पालन करना चाहिए । सत्साहित्य का श्रवण एवं अध्ययन, सत्पुरुषों, आश्रमों एवं मंदिरों के दर्शन करना चाहिए एवं मन प्रफुल्लित (खुश ) रहे - ऐसी सत्प्रवत्तियो में लगे रहना चाहिए । इसके अतिरिक्त भोजन पर भी\
विशेष ध्यान देना चाहिए । सिर्फ सात्त्विक भोजन ही ग्रहण करें । गाय का दूध, फल, हरी सब्जियाँ आदि ।
स्रोत : आरोग्यनिधि, भाग-१
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